Wednesday, October 27, 2021
क्या बिहार का एक और विभाजन अवश्यंभावी है ?
लगता है बिहार के तीसरे विभाजन के बिना मैथिली की समस्या का समाधान नहीं होगा | भारत में अधिकतर राज्यों की अपनी भाषा और संस्कृति है| सभी दक्षिणी राज्यों का निर्माण भाषा और संस्कृति के आधार पर हुआ है | जरा सूची देखिये :
असम - असमी भाषा और संस्कृति
पश्चिम बंगाल - बांग्ला, बंगाली संस्कृति
ओडिशा - ओड़िया भाषा और संस्कृति
आन्ध्र प्रदेश - तेलुगु
तेलन्गाना - तेलुगु और उर्दू
तमिलनाडु - तमिल
कर्नाटक - कन्नड़
केरल - मलयाली
( सभी दक्षिणी राज्यों की संस्कृति कमोवेश द्रविड़ और सनातन संस्कृति से मिलकर बनी है| )
महाराष्ट्र - मराठी
गुजरात - गुजराती
राजस्थान - मारवाड़ी
छत्तीसगढ़ - छत्तीसगढ़ी
झारखण्ड - संथाली, मुंडारी, कुरुख, नगपुरिया, पंचपरगनियाँ
हरयाणा - हरयाणवी
हिमाचल प्रदेश - हिंदी, पहाड़ी
पंजाब - पंजाबी (गुरुमुखी)
मिजोरम - मिज़ो
मणिपुर - मणिपुरी
त्रिपुरा - बांगला
नागालैंड - नागा और अंग्रेजी
जम्मू-काश्मीर - डोगरी, कश्मीरी और उर्दू
बिहार - मैथिली, भोजपुरी, मगही | जानकारी के अभाव में लोग यहाँ की संस्कृति को बिहारी संस्कृति कहते हैं, जबकि मैथिली - भोजपुरी संस्कृति में मौलिक अंतर है|
सभी भाषाओँ में केवल मैथिली ही एक ऐसी भाषा है जिसके विरुद्ध राज्य के अंदर और राज्य के बाहर लगातार षड्यंत्र चलता रहा है | पहले मैथिली को हिंदी का अंग कहा गया और बाद में अंगिका और बज्जिका को मैथिली से पृथक दिखाने की साजिश चलती रही | नवीनतम षड्यंत्र नवीन शिक्षा नीति को विफल करने के लिए मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा के अंतर्गत मैथिली के साथ मगही, भोजपुरी, अंगिका, बज्जिका को भी शामिल करने का निर्णय लिया है| जैसे पिछली सरकारों की अदूरदर्शी नीतियों ने झारखण्ड के निर्माण को अवश्यंभावी बना दिया वैसे ही वर्तमान सरकार की नीति मिथिला को पृथक राज्य का दर्जा देने के लिए संघर्ष को अवश्यंभावी बना देगी | जिस राहुल सांकृत्यायन ने मैथिली को अंगिका और बज्जिका में विभाजित किया था उन्होंने ही भोजपुरी को भी तीन भाषाओँ में बाँटा था, परन्तु इसकी चर्चा नहीं होती |
Sunday, October 24, 2021
The Himalayan Kingdoms in Indian Foreign Policy, Raj Kumar Jha
The Himalayan Kingdoms in Indian Foreign Policy : by Raj Kumar Jha, published by Maitryee Publications, Ranchi, PP. 398+vi 1986, price ERs. 225/44
The book, under review, is an excellent piece of research dealing with Indian foreign policy concerning the Himalayan Kingdoms with special reference to Nepal. After the expiry of the Indo-Nepal ' 'Trade and Transit
Treary" on 23rd March, 1989 the relevence of this study, which was carried out a few years
ago, has become more significant not Only for the political pandits of India and abroad, but also for the common citizens of India and Nepal to understand the complexities of this foreign policy.
Based on the macro approach and collection through the contents analysis method, the author has significantly attempted to highlight both the subJective and objective factors influencing India's foreign policy towards her Himalayan neighbours.
Besides a Foreword and a Preface, there are seven chapters in the book. The first chapter is an Introduction where the author has discussed the broader aspect of the subject in Historical perspective. The second chapter throws light on the historical background of Indo-Nepal relations specially before 1947. Thus, in the third chapter the author has attempted to pin point the India's foreign policy towards the Himalayan Kingdom of Nepal from 1947 to 1951. India and the Himalayan Kingdom : 1951-1958 the subject matter of fourth chapter. In the fifth chapter he has discussed India and the Himalayan Kingdom : 1959-1962. The role of the instrusive powers has been nicely elaborated by the author in the sixth chapter. The seventh chapter is the conclusion, followed by appendices, select bibliography etc.
The Maitryee Publications, Ranchi has provided a good binding, printing paper etc and
has successfully enteréd into the Competitive market of book publication in India.
D. P. Rajaure,
Centre for Nepal & Asian
Studies, Tribhuvan University
Kathmandu, Nepal.
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