Saturday, August 21, 2021

राजगोपालाचारी के गवर्नर जनरल बनने की कहानी

 

 श्री चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के गवर्नर जनरल बनने की कहानी और परदे के पीछे का खेल

 

जून १९४८ में लुइस फिलिप माउंटबैटन का कार्यकाल समाप्त होने वाला था | उनके उत्तराधिकारी की तलाश शुरू हो गई थी | एडविना ने नेहरु जी को सरदार पटेल का नाम सुझाया| नेहरु जी को यह अच्छा लगा कि उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी अलंकारिक पद पर चले जाएँगे | जब माउंटबैटन ने सरदार से गवर्नर जनरल बनने की बात कही तो पटेल ठहाका लगाकर हँसने लगे | नेहरु की दूसरी पसंद बंगाल के गवर्नर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी थे | नेहरु जी ने ३० मार्च १९४८ को राजा जी को पत्र लिख कर इसके लिए आग्रह किया | परन्तु बुद्धिमान राजा जी को इसमें रुचि नहीं थी| उन्होंने कुछ दिनों का समय माँगा | एक सप्ताह के बाद नेहरु जी ने राजा जी को फिर लिखा : “आशा है आप हमें निराश नहीं करेंगे | हम आपको यहाँ कई प्रकार की मदद के लिए चाहते हैं | हम में से कुछ पर इतना बोझ है कि उसे ढोना हमारे लिए मुश्किल है |” पूरी अनिच्छा से राजा जी ने नेहरु जी की पेशकश को स्वीकार किया | ३ मई १९४८ को माउंटबैटन के उत्तराधिकारी के रूप में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के नाम की घोषणा की गई |

 घोषणा के तीन दिन बाद नेहरु जी ने राजा जी को एक उदासी भरा पत्र लिखा : “ हमारी राजनीति अपना सच्चा चरित्र या नैतिक आधार खो चुकी है और हम निरा अवसरवादी की तरह काम कर रहे हैं | हमें जरा भी संदेह नहीं है कि हम तेजी से बदतर होते जा रहे हैं और अपनी दृष्टि तथा क्रियाकलापों में प्रतिक्रियावादी बनते जा रहे हैं |” अपने पत्र का समापन करते हुए उन्होंने लिखा: “ मुझे लगता है कि यह मेरे लिए और भारत के लिए भी अच्छा होगा कि कुछ दिनों के लिए मैं परिदृश्य से बाहर हो जाऊँ|”

 राजा जी ने तुरंत एक टेलीग्राम भेज कर कहा कि नेहरु जी के शब्दों ने उनके दिल को छू लिया है| “ मेरे हिसाब से मेरे बदले आपको गवर्नर जनरल बनना चाहिए और सरदार (पटेल) को प्रधान मंत्री बनने दीजिए |” “ आप इतने बड़े हैं कि आप उस भावना को समझेंगे जिसमें मैंने यह सुझाव दिया है | “ परन्तु नेहरु न तो अलंकारिक पद लेने में रुचि रखते थे न सरदार को प्रधान मंत्री बनने देने में |

Wednesday, April 21, 2021

हिंसा की राजनीति और लास्की

 

हिंसा की राजनीति और लास्की

 

हेराल्ड जे लास्की ने अ ग्रामर ऑफ़ पॉलिटिक्स लिखी थी| राजनीति वैज्ञानिक के अतिरिक्त वे व्यावहारिक राजनीतिज्ञ भी थे | वे ब्रिटेन के लेबर पार्टी के न केवल बौद्धिक प्रचारक थे बल्कि १९४५ में लेबर पार्टी के अध्यक्ष भी बने थे | १९ जून १९४५ ईस्वी को उन्होंने नेवार्क में एक भाषण दिया था जिसके प्रकाशन के लिए उन्होंने नेवार्क एडवरटाइजर पर मुकदमा दायर किया था | नेवार्क एडवरटाइजर ने अपने रपट में कहा था कि लास्की ने ‘ समाजवाद के राजनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए हिंसा का सहारा लेने को कहा था |’ मुक़दमे की सुनवाई लार्ड चीफ जस्टिस Goddard ने की और लास्की के सहकर्मी और लेबर सरकार के पूर्व अटॉर्नी जनरल सर पैट्रिक हेस्टिंग्स प्रतिवादी के पक्ष में जिरह कर रहे थे |

जिरह लंबा चला| हेस्टिंग्स ने लास्की से अंत में पूछा कि क्या वे यही कह रहे हैं न कि यदि सहमति से ये समाजवादी परिवर्तन नहीं होते हैं तो समाजवाद में विश्वास रखनेवालों के द्वारा इन्हें हिंसा के द्वारा लाया जाएगा?’ लास्की ने ‘हाँ कहा |

लास्की न केवल मुकदमा हारे बल्कि उनपर १३००० पौंड का जुरमाना भी लगाया गया| इस निर्णय के बाद लास्की ब्रिटिश सरकार से झगड़ पड़े और दो साल के अंदर उनकी मृत्य हो गई|

Wednesday, December 30, 2020

  पक्षपाती @DainikBhaskar

" १७७५ में ब्रिटिश संसद में राजनीति शास्त्री एडमंड बर्क ने अपने भाषण में तत्कालीन सरकार को आगाह किया था कि वह अमेरिकी उपनिवेशों के नाराज़ लोगों पर बल प्रयोग की ग़लती न करे, क्योंकि बल से शाश्वत सहमति नहीं मिलती और आक्रोश फिर उभरता है। उत्तर भारत के भाजपा शासित राज्य में एक कॉलेज प्रिंसिपल ने 6 छात्रों के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मामला दर्ज करवाया। कारण, वे कैंपस में... 'ले के रहेंगे, आज़ादी का नारा लगा रहे थे।.... दो दिन पहले प्रधानमंत्री ने महाराष्ट्र के एक व्यक्ति द्वारा उन्हें लिखे गए एक पत्र को को यूपी सरकार को भेजा। इसमें ज़िक्र है कि यूपी में वाहनों पर लिखे जाति सूचक शब्द सामाजिक तनाव बढ़ाते हैं। यूपी सरकार ने ऐसे वाहनों की ज़ब्ती शुरू कर दी। ... जब राज्य शक्ति का भगवाकरण इतने भौंडा तरीक़े से होगा तो आम जनता का भी प्रजातंत्र से ही भरोसा टूटने लगेगा। "

यह है आज के @दैनिकभास्कर का संपादकीय।

पहली बात कि बर्क एक दार्शनिक और राजनीतिज्ञ थे, राजनीति शास्त्री नहीं। उस समय तक राजनीति शास्त्र विषय नहीं बना था।

दूसरी बात कि यदि आज़ाद भारत से ‘लड़के लेंगे आज़ादी’ देशद्रोह नहीं है तो क्या है?

तीसरी बात कि जातीय विद्वेष फैलाने से रोकना 'राज्य शक्ति का भौंडे तरीके से भगवाकरण' कैसे है?

रॉंची में जबसे दैनिक भास्कर आया मैं इसका ग्राहक और पाठक रहा हूँ, परंतु अख़बार का 'भौंडा' पक्षपातपूर्ण रवैया हमें विवश करता है कि इसे नमस्कार कर दिया जाय।

 

Thursday, August 13, 2020

हिंदी बनाम हिन्दुस्तानी - डॉक्टर अमरनाथ झा

 

डॉक्टर अमरनाथ झा, दरबार डायरी में उद्धृत, जून १९३९

 हिंदुस्तानी क्या है? राजनीति से भाषा का जोड़ना, मुसलमान को प्रसन्न करने के लिये भाषा की दुर्गति। जब भी एकता की बात होती है, भाषा का कुछ अभिघात हो जाता है। यू.पी. में आज पच्चीस वर्षों में ये प्रयास असफल हुआ है। Text Book Committee के सेक्रेटेरी के रूप में मुझे कितना अन्याय करना पड़ा है। हिंदी के प्रतिनिधियों को चुन चुन कर हटाया जाता है, सप्रू और नेहरू के इशारे पर। इन दोनो को संस्कृत का कोई ज्ञान नहीं है। सप्रू को तो हिंदी अक्षरों का भी ज्ञान नहीं है प्रायः। दिल्ली और लखनऊ के बीच तो तुलसीदासी रामायण भी प्रायः उर्दू में ही लिखी मिलती है।