चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, जिन्हें राजा जी और सी.आर. नाम से भी जाना जाता है, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के ऐसे नेता थे जिन्हें महात्मा गांधी स्वयं अपनी अंतरात्मा के रक्षक कहते थे। उनका जन्म मद्रास के सलेम ज़िले के थोरापल्ली में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में 10 दिसंबर 1878 को हुआ था। वे अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि के थे। मद्रास और बंगलौर में अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी करने के बाद 1900 में उन्होंने वकालत शुरू की और कुछ ही दिनों में उनकी गिनती सफलतम वकीलों में होने लगी। वे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के समर्थक थे और तिलक के समर्थन में उन्होंने कांग्रेस में भाग लिया। कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में भी उन्होंने तिलक का समर्थन किया। तिलक, गोखले, बी एस सुब्रमनिया अय्यर और सुब्रमनयम भारती के संदेशों ने उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पडने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने होमरूल आंदोलन में भाग लिया और 1921-22 में वे कांग्रेस के महासचिव रहे।
राजा जी महात्मा गांधी से बहुत प्रभावित थे, और उन्हें 'मुक्तिदाता' मानते थे। सरदार पटेल से राजा जी की गहरी दोस्ती थी। राजा जी अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि के राष्ट्रवादी थे, परंतु दक्षिण भारत में ब्राह्मण विरोधी मुहिम के चलते कुछ नेता राजा जी का विरोध करते थे। सरदार पटेल का गुस्सा उबल पडा। उन्होंने कहा: " आप ब्राह्मणों से ईर्ष्या क्यों करते हैं? उन्होंने आपका क्या बिगाडा है? क्या आप महा-ब्राह्मणों (अंग्रेज़ों) द्वारा आप दोनों को फुँचाए गए नुकसान से बेखबर हैं? वे 5,000 मील से अधिक दूर से आकर ब्राह्मण बन बैठे हैं। सुबह और शाम आप उनकी खुशामद करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। क्यों आप महा-ब्राह्मणों के विरुद्ध संघर्ष नहीं करते?" सरदार का गुस्सा राजा जी जैसे प्रतिभाशाली देशभक्त के रास्ते में पैदा की गई वाधाओं के चलते उबल पडा थ।
1919 में गांधी जी मद्रास में राजा जी के साथ ठहरे थे। इसी समय गांधी जी के मन में असहयोग आंदोलन का विचार आया।
राजा जी ने असहयोग आंदोलन में भाग लिया और वकालत छोड दी। डांडी यात्रा के समय राजा जी 100 स्वयंसेवकों के साथ त्रिचुरापल्ली से वेदारण्यं की यात्रा पर गये। गांधी जी की अनुपस्थिति में राजा जी ने यंग इण्डिया का संपादन किया।
राजा जी के विरोध के चलते सी आर दास और मोतीलाल नेहरू के काउंसिल प्रवेश के विचार को गया कांग्रेस ने अस्वीकार कर दिया। 1937 में जब प्रांतों कांग्रेस की सरकार बनी, तब राजा जी मद्रास के मुख्य मंत्री बने।
गांधी जी के प्रति अपार श्रद्धा होने के बावजूद रा जी अपने लिए स्वयं सोचते थे। उन्होंने यह अनुभव किया कि बिना विभाजन के भारत को स्वतंत्रता मिलने वाली नहीं है। उनके इस विचार के चलते उन्हें कांग्रेस छोडना पडा। परंतु अंततः राजा जी की बात ही ठीक निकली। स्वतंत्रता-प्राप्तिके बाद सांप्रदायिक हिंसा की आग में जल रहे बंगाल की स्थिति सुधारने के लिए उन्हें बंगाल का राज्यपाल बनाया गया। माउंट्बैटेन के बाद राजा जी भारत के गवर्नर-जेनरल बने। गवर्नर-जेनरल बनने वाले वे प्रथम और अंतिम भारतीय थे। बाद में वे भारत सरकार के गृह मंत्री भी बने।
राजा जी ने महाभारत, रामायण, वेदांत, गीता, उपनिषद आदि पर कई पुस्तकों की रचना की। उनके ग्रंथ अप्रतिम हैं। अपनी इन अमर कृतियों को दुनिया के लिए छोड कर 25 दिसंबर 1972 को राजा जी अपनी अंतिम यात्रा पर निकल पडे।
पटेल के शब्दों में राजा जी एक अंतरराष्ट्रीय हस्ती थे। गांधी जी के शब्दों में " राजा जी मेरे सबसे पुराने मित्रों में से हैं और मेरे विचारों और कार्यों के सर्वोत्तम प्रतिपादक के रूप में वे जाने जाते हैं। मैं जानता हूं कि 1942 में वे मुझसे असहमत थे। सार्वजनिक रूप से उन्होंने इस असह्मति की घोषणा की जिसके लिए उनका सम्मान किया जाना चाहिए। वे एक महान समाज सुधारक हैं, जो अपने विश्वास के अनुसार काम करने में कभी डरते नहीं हैं। उनकी बुद्धिमत्ता और ईमानदारी संदेह के परे हैं।"
उनके योगदान को ध्यान में रखते हुए उन्हें भारत का पहला भारतरत्न प्रदान किया गया।
कूई आश्चर्य नहीं कि नेहरू और कांग्रेस की नीतियों से असहमत होने पर 1959 में उन्होंने स्वतंत्र पार्टी की स्थापना कर ली और 'स्वराज्य' नाम की पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। राजा जी के विचार आज की दुनिया और भारत के शासकीय विचार हैं।
राजा जी की कृतियाँ
राजा जी मूलतः एक बौद्धिक थे। उन्होंने तमिल और अंग्रेज़ी में कई रचनाएं की। 1951 में उन्होंने महाभारत, 1957 में रामायण का संक्षिप्त संस्करण निकाला। 1955 में उन्होंने कंबन रामायण का अंग्रेज़ी अनुवाद किया था। 1965 में उन्होंने थिरुकुराल का अंग्रेजी अनुवाद किया। उन्होंने भगवद गीता, उपनिषद, सुकरात, मार्कस औरेलियस पर अंग्रेजी में पुस्तकें लिखीं। उन्हें उनके तमिल लेखन के लिये1958 में साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। अपने साहित्यिक योगदान को राजा जी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योग्दान मानते थे। 1958 में भरतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने 'भारतीय विद्या भवन' की स्थापना की।
राजा जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे कृष्ण-भक्त थे और भक्ति गान की रचना की। राजा जी द्वारा रचित और एम एस सुब्बलक्ष्मी द्वारा गाया स्तोत्र 1967 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में प्रस्तुत किया गया था।
राजा जी महात्मा गांधी से बहुत प्रभावित थे, और उन्हें 'मुक्तिदाता' मानते थे। सरदार पटेल से राजा जी की गहरी दोस्ती थी। राजा जी अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि के राष्ट्रवादी थे, परंतु दक्षिण भारत में ब्राह्मण विरोधी मुहिम के चलते कुछ नेता राजा जी का विरोध करते थे। सरदार पटेल का गुस्सा उबल पडा। उन्होंने कहा: " आप ब्राह्मणों से ईर्ष्या क्यों करते हैं? उन्होंने आपका क्या बिगाडा है? क्या आप महा-ब्राह्मणों (अंग्रेज़ों) द्वारा आप दोनों को फुँचाए गए नुकसान से बेखबर हैं? वे 5,000 मील से अधिक दूर से आकर ब्राह्मण बन बैठे हैं। सुबह और शाम आप उनकी खुशामद करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। क्यों आप महा-ब्राह्मणों के विरुद्ध संघर्ष नहीं करते?" सरदार का गुस्सा राजा जी जैसे प्रतिभाशाली देशभक्त के रास्ते में पैदा की गई वाधाओं के चलते उबल पडा थ।
1919 में गांधी जी मद्रास में राजा जी के साथ ठहरे थे। इसी समय गांधी जी के मन में असहयोग आंदोलन का विचार आया।
राजा जी ने असहयोग आंदोलन में भाग लिया और वकालत छोड दी। डांडी यात्रा के समय राजा जी 100 स्वयंसेवकों के साथ त्रिचुरापल्ली से वेदारण्यं की यात्रा पर गये। गांधी जी की अनुपस्थिति में राजा जी ने यंग इण्डिया का संपादन किया।
राजा जी के विरोध के चलते सी आर दास और मोतीलाल नेहरू के काउंसिल प्रवेश के विचार को गया कांग्रेस ने अस्वीकार कर दिया। 1937 में जब प्रांतों कांग्रेस की सरकार बनी, तब राजा जी मद्रास के मुख्य मंत्री बने।
गांधी जी के प्रति अपार श्रद्धा होने के बावजूद रा जी अपने लिए स्वयं सोचते थे। उन्होंने यह अनुभव किया कि बिना विभाजन के भारत को स्वतंत्रता मिलने वाली नहीं है। उनके इस विचार के चलते उन्हें कांग्रेस छोडना पडा। परंतु अंततः राजा जी की बात ही ठीक निकली। स्वतंत्रता-प्राप्तिके बाद सांप्रदायिक हिंसा की आग में जल रहे बंगाल की स्थिति सुधारने के लिए उन्हें बंगाल का राज्यपाल बनाया गया। माउंट्बैटेन के बाद राजा जी भारत के गवर्नर-जेनरल बने। गवर्नर-जेनरल बनने वाले वे प्रथम और अंतिम भारतीय थे। बाद में वे भारत सरकार के गृह मंत्री भी बने।
राजा जी ने महाभारत, रामायण, वेदांत, गीता, उपनिषद आदि पर कई पुस्तकों की रचना की। उनके ग्रंथ अप्रतिम हैं। अपनी इन अमर कृतियों को दुनिया के लिए छोड कर 25 दिसंबर 1972 को राजा जी अपनी अंतिम यात्रा पर निकल पडे।
पटेल के शब्दों में राजा जी एक अंतरराष्ट्रीय हस्ती थे। गांधी जी के शब्दों में " राजा जी मेरे सबसे पुराने मित्रों में से हैं और मेरे विचारों और कार्यों के सर्वोत्तम प्रतिपादक के रूप में वे जाने जाते हैं। मैं जानता हूं कि 1942 में वे मुझसे असहमत थे। सार्वजनिक रूप से उन्होंने इस असह्मति की घोषणा की जिसके लिए उनका सम्मान किया जाना चाहिए। वे एक महान समाज सुधारक हैं, जो अपने विश्वास के अनुसार काम करने में कभी डरते नहीं हैं। उनकी बुद्धिमत्ता और ईमानदारी संदेह के परे हैं।"
उनके योगदान को ध्यान में रखते हुए उन्हें भारत का पहला भारतरत्न प्रदान किया गया।
कूई आश्चर्य नहीं कि नेहरू और कांग्रेस की नीतियों से असहमत होने पर 1959 में उन्होंने स्वतंत्र पार्टी की स्थापना कर ली और 'स्वराज्य' नाम की पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। राजा जी के विचार आज की दुनिया और भारत के शासकीय विचार हैं।
राजा जी की कृतियाँ
राजा जी मूलतः एक बौद्धिक थे। उन्होंने तमिल और अंग्रेज़ी में कई रचनाएं की। 1951 में उन्होंने महाभारत, 1957 में रामायण का संक्षिप्त संस्करण निकाला। 1955 में उन्होंने कंबन रामायण का अंग्रेज़ी अनुवाद किया था। 1965 में उन्होंने थिरुकुराल का अंग्रेजी अनुवाद किया। उन्होंने भगवद गीता, उपनिषद, सुकरात, मार्कस औरेलियस पर अंग्रेजी में पुस्तकें लिखीं। उन्हें उनके तमिल लेखन के लिये1958 में साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। अपने साहित्यिक योगदान को राजा जी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योग्दान मानते थे। 1958 में भरतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने 'भारतीय विद्या भवन' की स्थापना की।
राजा जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे कृष्ण-भक्त थे और भक्ति गान की रचना की। राजा जी द्वारा रचित और एम एस सुब्बलक्ष्मी द्वारा गाया स्तोत्र 1967 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में प्रस्तुत किया गया था।
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