हुकूमत से लड़ना यदि पत्रकारिता है ?
हुकूमत से सवाल पूछना यदि पत्रकारिता है ?
तो पत्रकारों को
मामूली किराए पर मिले सरकारी आवास,
रियायती प्लॉट, बसों के फ्री सफर
ट्रेन किराए में 50 फीसदी तक की रियायत
संसद भवन की कैंटीन में लगभग मुफ्त भोजन
सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज
सरकारी डाकबंगले और सर्किट हाउस में
फोकट में ठहरने की मुफ्तखोरी
कारपोरेट गिफ्ट..
प्रेस कांफ्रेंस में थाली भर भकोसना
और भी तमाम सरकारी और कार्पोरेटी सुविधाएं
तनिक देर किए बिना छोड़ देनी चाहिए।
रवीश, थाववी, नकवी जैसे तमाम पत्रकार
यदि जिगर रखते हैं ?
हुकूमत से सवाल पूछने का नैतिक अधिकार
चाहते हैं तो जनता के पैसों पर जारी
मुफ्तखोरी के खिलाफ आवाज उठा कर दिखाएं !
देश की जनता
और मेरे से नाकाबिल भी आपकी
आवाज का साथ देंगे !
तब तक अपनी आवाज नीची
और स्क्रीन काली रखें!
विरोध में नहीं...
लज्जा से !
.
हे देश के पत्रकारों!
सरकार की झूठी पत्तल चाटने वाले कुत्ते
ऊँची आवाज में बात करने की जुर्रत नहीं करते ।
और ना भोंकने की आजादी की मांग करते हैं।
ऐसी ऊँची आवाज हम जैसे
सड़कछाप पत्रकारों को सुहाती है।
आप जैसों को नहीं!
क्योंकि अपन बेदाग हैं।
खुल्ला बोल रहा हूँ !
.
सबसे मुश्किल युद्ध अपने
घर और अपनी क़ौम से युद्ध
करना होता है रवीश !
बकाए सारे युद्ध नपुंसकों के युद्ध है !
आओ रवीश !
असल महाभारत शुरू करें !
- Sumant Bhattacharya ( ? )
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