गाँधी और सावरकर
भारतीय सामाजिक – राजनीतिक चिंतन के
दो ध्रुव
लंदन में श्यामजी कृष्ण वर्मा की प्रेरणा
से इण्डिया हाउस
बना था जो लंदन में भारतीय छात्रों के लिए हॉस्टल का काम
करता| परंतु विनायक दामोदर सावरकर के नेतृत्व में यह हॉस्टल पूरे यूरोप में ‘
राजद्रोह और खतरनाक क्रांतिकारी गतिविधियों ‘ का अड्डा बन गया था | अक्टूबर १९०६
में यहीं गाँधी और सावरकर की पहली मुलाकात हुई थी |
सावरकर खाना बना रहे थे जब गाँधी
उनसे राजनीतिक मुद्दों पर बात करने पहुँचे | गाँधीजी से सावरकर ने कहा ‘ पहले खाना
खा लिया जाए‘| गाँधीजी यह देख हतप्रभ थे कि यह चितपावन ब्राह्मण झींगा मछली बना रहा
था| शुद्ध वैष्णव गाँधी ने भोजन करना मना कर दिया | सावरकर ने गाँधी से कहा: “ जब
आप हमारे साथ खाना नहीं खा सकते हैं, तब आप हमारे साथ काम कैसे करेंगे? वैसे भी,
यह तो केवल उबली हुई मछली है, जबकि हमें ऐसे लोग चाहिए जो अंग्रेजों को जिंदा खा
लेने के लिए तत्पर हों |” यह मुलाक़ात बहुत सौहार्दपूर्ण नहीं थी, समय के साथ दोनों
के बीच मतभेद बढ़ते ही गए |
दोनों के बीच समानताएं और असमानताएं
विस्मयकारी थीं | दोनों ने मुख्य भूमि भारत के बाहर अपने जीवन के कुछ समय गुजारे –
गाँधी दक्षिण अफ्रीका में,
सावरकर पहले लंदन और फिर दस वर्ष से अधिक अंडमान की कालकोठरी में | दोनों को अपने
हिंदुत्व से प्रेम था, परंतु उनके मार्ग अलग थे | दोनों हिंदी को भारत में संपर्क
भाषा के रूप में बढाने के लिए तत्पर थे | दोनों ने एक ही साल, १९०९, में
पुस्तकें लिखी जो ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दी गई – गाँधी जी का हिन्द
स्वराज और सावरकर का १८५७ की क्रांति पर भारतीय स्वतंत्रता का प्रथम
संग्राम | अंग्रेजों और नकलची इतिहासकारों ने इसे सिपाही विद्रोह कहा था| वे केवल राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि बौद्धिक विरोधी भी थे|
कई लोग यह संकेत देते हैं कि हिंद
स्वराज लिखते
समय गाँधी के दिमाग में सावरकर थे, जबकि १९२३ में प्रकाशित सावरकर की पुस्तक Essentials
Of Hindutva निर्विवाद रूप से गाँधी के विरुद्ध
प्रथम प्रहार थी जिनके शांतिवादी दर्शन को सावरकर पूरी तरह ख़ारिज करते थे | यद्यपि
१९०९ में प्रकाशित दोनों की पुस्तकों का लक्ष्य ‘स्वराज’ था, गाँधी के लिए साधन
साध्य के साथ अंतरंग रूप से जुड़े थे और अहिंसा इनका मंत्र था | दूसरी ओर सावरकर
राष्ट्र के आत्माश्वासन / स्वाग्रह में विश्वास करते थे जिसकी अभिव्यक्ति हिंसक,
सशस्त्र कृत्य के रूप में होती| सावरकर को अहिंसा की कायरता से घृणा थी और वे
आजीवन मानते रहें कि सैन्यीकरण मजबूत राष्ट्र की शर्त है|
भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता की
मांग करने वाले प्रथम व्यक्ति सावरकर थे और वह भी उस समय जब कांग्रेस प्रार्थना
पत्र के माध्यम से अंग्रेजों से कुछ रियायतें प्राप्त करने में लगी थी | १९०८ ईस्वी
में ही सावरकर ने भारत के लिए सांविधानिक गणतन्त्र का एक खांका तैयार किया था
जिसकी संसद में दो सदन होते – ऊपरी सदन में राष्ट्र के लिए संघर्ष करने वाले देशी
रजवाड़ों के प्रतिनिधि होते और निचले सदन में जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से
निर्वाचित प्रतिनिधि होते |
हिंसा, राजनीतिक हत्याओं को बढ़ावा
देने और भारत में चोरी छुपे शस्त्रास्त्र और बम लाने के आरोप में सावरकर को १९१०
में लन्दन में गिरफ्तार कर लिया गया, उन पर राजद्रोह का मुक़दमा चला, उन्हें
प्रत्यर्पित किया गया, अन्यायपूर्ण ढंग से मुकदमा चला और ५० वर्षों की अंडमान की
कालकोठरी में दो आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई| गाँधी उस समय राष्ट्रीय परिदृश्य
पर कहीं नहीं थे जब सावरकर को कालापानी के लिए अंडमान निकोबार में भेज दिया गया था
| परंतु जब १९२१ में सावरकर को वहाँ से भारतीय जेल में लाया गया तब उनका सामना ऐसे
गाँधी से हुआ जो न केवल भारत लौट आए थे बल्कि जिन्होंने कांग्रेस और राष्ट्रीय
आंदोलन पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया था, खासकर १९२० में तिलक की मृत्यु के
पश्चात् |
अपने जेल की चारदीवारी से सावरकर यह
देख संत्रस्त थे कि कैसे गाँधी खिलाफत के मुद्दे को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से
जोड़कर धर्म और राजनीति में घालमेल कर खतरनाक सांप्रदायिक आग को हवा दे रहे थे |
प्रथम विश्वयुद्ध के अंतिम दिनों में कई भारतीय मुसलमान, खासकर सुन्नी, पराजित
तुर्की के सुलतान की प्रभुसत्ता को कायम रखने की मांग कर रहे थे, क्योंकि वे उसे
पैगम्बर के प्रतीक के रूप में देखते थे | ब्रिटेन इस मांग को मानने के लिए तैयार
नहीं था क्योंकि तुर्की सहित अन्य मुस्लिम देश खलीफा के शासन के अंत के पक्षधर थे
|
ऐसे में इस आंदोलन का विफल होना
निश्चित था | फिर भी, डॉक्टर अम्बेडकर के शब्दों में, गाँधी ने आंदोलन का नेतृत्व
“ऐसे जोश और विश्वास के साथ ग्रहण किया जो बहुत सारे मुहम्मडनों को भी अचंभित किया
होगा|” प्रतीकात्मक राजनीति के अतुल्य
खिलाड़ी ने आशा की थी कि इससे न केवल हिंदू-मुस्लिम एकटा को बल मिलेगा बल्कि
मुसलमानों को राष्ट्रीय संघर्ष में, जिससे
उन्होंने अपने को सोच-विचार कर अलग रखा था, आकर्षित भी करेगा| गाँधी के एक साल के भीतर मुक्ति के आश्वासन ने
सांप्रदायिक उर्जा से प्रेरित भीड़ की आशा को बहुत बढ़ा दिया था |
जैसाकि होना ही था इस आंदोलन की
विफलता ने १९२० के दशक में सांप्रदायिक भीड़ के गुस्से को पूरे भारत में
सांप्रदायिक उन्माद और दंगे में धकेल दिया – मालाबार में मोपलाओं द्वारा नरसंहार.
गुलबर्ग, कोहट, दिल्ली, पानीपत, कलकत्ता, पूर्वी बंगाल और सिंध के सांप्रदायिक संघर्ष भयानक थे | हर समय, हर जगह गाँधी की ठंढी अनुक्रिया ने सावरकर के
क्रोध को और भड़काया| उदाहरणस्वरुप, गाँधी ने मालाबार में मोपलाओं द्वारा हिन्दुओं
(नायरों) के नरसंहार को “ बहादुर, धर्म-परायण मोपलाओं” का कृत्य कहा; उन्हें
‘देशभक्त’ कहा जो ‘ जिसे वे मजहब मानते हैं के लिए संघर्ष कर रहे हैं|”
इसी पृष्ठभूमि में सावरकर ने रत्नागिरी कारा में हिंदुत्व पर अपनी पुस्तक लिखी, जो गांधीवाद और खिलाफत आंदोलन, जिसे वे अक्सर ‘आफत’ कहा करते थे, का सीधा जवाब था| उन्होंने हिन्दू समाज की एकता का आह्वान किया और भारत के पवित्र भूगोल और क्षेत्रीय अखण्डता को परिभाषित कर खिलाफत की पारदेशी निष्ठा ( transnational loyalty) को चुनौती दी| कोई भी व्यक्ति जो इस भूमि को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानता है वह ‘हिन्दू’ है, भले ही वह मुसलमान या इसाई ही क्यों न हो | सावरकर के अनुसार वे (मुसलमान और इसाई ) धार्मिक आधार पर नहीं, साझे इतिहास और खून के रिश्ते ( bloodline) के आधार पर सांस्कृतिक रूप से हिन्दू हैं | इसके बाद से सावरकर ने अपने को हिन्दू समुदाय के हितों के रक्षक के रूप में पेश करना शुरू किया यद्यपि वे हिन्दू धर्म के कर्मकाण्डी पक्ष के प्रति न केवल उदासीन थे बल्कि अनीश्वरवाद और संशयवाद के बीच डोलते रहते थे|
१९२४ – १९३७ के बीच सावरकर ने
रत्नागिरी में, जहाँ उन्हें जेल से रिहाई के बाद सशर्त बंदी के रूप में रखा गया था, बड़े स्तर पर समाज सुधार कार्यक्रम चलाया |
उन्होंने जाति-व्यवस्था, वर्ण परंपरा और छुआछूत को पूरी तरह
समाप्त कर हिन्दू समाज में एकता लाने का प्रयास किया और अंतर-जातीय भोज, अंतरजातीय
और अंतरक्षेत्रीय विवाह, विधवा विवाह, नारी
शिक्षा और सभी जातियों के लिए मन्दिर के द्वार खोले जाने के लिए काम करना शुरू
किया |
सावरकर के विचार गाँधी की अपेक्षा
अम्बेडकर से अधिक मेल खाते थे|जाति
के संबंध में गाँधी के विचार अनोखे थे| गाँधी
जी का कहना था कि वे “ जाति व्यवस्था को घिनौनी और भ्रष्ट हठधर्मिता “ (odius
and vicious dogma ) नहीं मानते थे और “ यद्यपि “ इसकी
अपनी सीमाएं और दोष हैं, परन्तु इसमें पाप जैसी वैसी कोई बात
नहीं है जैसी छुआछूत में है |” गाँधी के इन विचारों ने सावरकर और अंबेडकर दोनों को
समान रूप से क्रुद्ध किया था |
जब १५ दिसम्बर १९३२ को अस्पृश्यों का
एक शिष्टमंडल उनसे मिलने आया तो गाँधी ने साफ साफ कह दिया कि “ मैं चातुर्वर्ण्य
में विश्वास करता हूँ ... सभी वृत्तियाँ / व्यवसाय वंशानुगत होनी चाहिए | लाखों
लोग प्रधान मंत्री और वाइसराय नहीं बनने जा रहे हैं |” अम्बेडकर और सावरकर के लिए
ये विचार लोकतंत्र की मूलभूत संकल्पना के विरुद्ध थे |
मार्च १९२७ में गाँधी जी सावरकर से मिलने उनके घर रत्नागिरी पहुंचे | दोनों के बीच घंटों विवाद होते रहे, खासकर सावरकर द्वारा शुद्धीकरण या हिन्दू धर्म में दूसरों को वापस लाने के मुद्दे पर| चलते समय गाँधी जी ने कहा कि यद्यपि कई मुद्दों पर दोनों के विचार अलग हैं परन्तु उन्हें आशा है कि सावरकर को इन मुद्दों पर उनके प्रयोग से कोई आपत्ति नहीं होगी| सावरकर का जवाब बहुत तीखा था | उन्होंने कहा : महात्मा जी, आप ये प्रयोग राष्ट्र की कीमत पर करेंगे | ( You will be making these experiments at the cost of the nation.) दोनों फिर कभी नहीं मिले |
१९३७ में अपनी रिहाई के बाद सावरकर हिन्दू
महासभा के अध्यक्ष बने और गाँधी के कांग्रेस और जिन्ना के मुस्लिम
लीग के विरुद्ध प्रत्यक्ष रूप से खड़े हो गए | सावरकर ‘जेल भरो’ आंदोलनों को
मूर्खता मानते थे | इसके बदले उन्होंने रास बिहारी घोष और सुभाष चन्द्र बोस को मदद
देना शुरू किया और उनकी भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) में लोगों की भर्ती के लिए काम करना शुरू किया| इस तथ्य को कि १९४६ के नौसैनिक विद्रोह ने हमें अंततः आज़ादी दिलाने
में मदद की हमारी इतिहास की पुस्तकों में चालाकी से छिपा लिया गया है|
सावरकर घोर बुद्धिवादी थे और यंत्रीकरण, बाज़ार संचालित अर्थ व्यवस्था, सशक्त सेना और वैज्ञानिक मानसिकता के पक्षधर थे | वे १९३४ के बिहार के विनाशकारी भूकंप को छुआछूत के चलते ईश्वरीय दंड के गाँधी की उक्ति की खिल्ली उड़ाते थे | गाँधी जी पर तंज कसते हुए सावरकर ने लिखा: “ मैं क्वेट्टा भूकम्प से क्यों डोल उठा के संबंध में उनकी अंतरात्मा की आवाज़ सुनने की अभी भी प्रतीक्षा ही कर रहा हूँ |”
जहाँ गाँधी सिनेमा के प्रभाव के
संबंध में तिरस्कारपूर्वक बोलते थे, वहाँ सावरकर इसे आधुनिक प्रौद्योगिकी का
सर्वोत्तम उदाहरण मानते थे और ‘ मानव मस्तिष्क के अभिनव भाव ( innovative
spirit) पर किसी प्रतिबन्ध को नापसंद करते
थे | जब साक्षातकर्ता ने उनसे पूछा कि क्या उनके ये विचार गाँधी के विचारों के
विरुद्ध थे, सावरकर ने झट से कहा कि “ क्या गाँधी और मुझमें कुछ भी समान है ?”
गाँधी गौ-पूजा के बड़े समर्थक थे| जून १९२१ में उन्होंने कहा : “कोई भी जो गौ-रक्षा में विश्वास नहीं करता हिन्दू होने का दावा नहीं कर सकता | मेरे लिए गौ-पूजा निष्कपटता की पूजा है|” सावरकर के विचार आज के गौ-रक्षकों को आघात पहुंचा सकते हैं| सावरकर के अनुसार गाय केवल उपयोगी जानवर है, जिसकी रक्षा होनी चाहिए , परन्तु इसे पूजनीय बना देना मानवता और देवत्व दोनों का अपमान है | हम जिस वस्तु पर श्रद्धा रखते हैं वह पूजक के व्यक्तित्व में समा जाता है और इसलिये हिंदुत्व का प्रतीक वश्य गाय नहीं, हिंस्र नृसिंह है|
जीवन भर सावरकर शहीदों की मौत का रूमानीकरण करते रहे| परन्तु मृत्यु में भी गाँधी ने उन्हें पीछे छोड़ दिया जब ३० जनवरी १९४८ को सावरकर के एक पूर्व सहायक ने गाँधी की हत्या कर दी| सावरकर पर नाथूराम गोडसे से संपर्क के आधार पर गाँधी की हत्या की साजिश का मुक़दमा चला जो ठोस साक्ष्य के अभाव में ख़ारिज हो गया और सावरकर बरी कर दिए गए|
१९२६ में जब आर्य समाज के प्रमुख और गाँधी तथा सावरकर दोनों के पूज्य मित्र – स्वामी श्रद्धानन्द – की हत्या एक धर्मांध मुसलमान, अब्दुल रशीद, ने कर दी तो गाँधी ने उसकी भर्त्सना करने के बदले उसे ‘प्रिय बन्धु’ कहा| सावरकर ने गाँधी के इस कृत्य की घोर भर्त्सना की| सावरकर ने लिखा : "यह संतनुमा महात्मा का प्रमाणचिह्न है कि वह कहे कि जिस खून ने ‘ हिन्दू खून’, उसमें भी एक संत का खून बहाया है, वह हमरा अपना सहोदर है.... आपने तो कभी डायर का बचाव नहीं किया| क्या यूरोपियन भी भाई नहीं हैं ?”
परंतु गाँधी के ‘अहिंसक’ अनुयायियों को ऐसा कोई मनस्ताप नहीं था | चूंकि नाथूराम गोडसे एक महाराष्ट्री ब्राह्मण था, पूरे महाराष्ट्र में गाँधी-हत्या के बाद बड़े पैमाने पर ब्राह्मणों का कत्लेआम किया गया, फिर एक तथ्य जिसे स्वतंत्रता के पश्चात् पूरी तरह ढक दिया गया| सावरकर के छोटे भाई नारायण राव इन दंगों में गंभीर रूप से घायल हुए और अंततः चल बसे| सावरकर हमेशा के लिए कलंकित हुए और कोर्ट से दोषमुक्ति के बाद भी उन पर गाँधी हत्या का धब्बा लगा ही रहा| गाँधी की हत्या के दो दशक बाद तक सावरकर एकाकीपन की जिंदगी गुजारते रहे | १९६६ में उन्होंने भोजन, पानी और दवा का पूर्ण परित्याग कर प्राणत्याग कर दिया | इस प्राणत्याग को सावरकर ने आत्मार्पण कहा|
यदि सावरकर और गाँधी में विषमता ढूंढा जाए तो सावरकर आधुनिकता और विज्ञान, राजनीति से कर्मकाण्डीय धर्म का पृथक्करण, सैन्यीकरण और जातिव्यवस्था को पूरी तरह समाप्त करने के पक्षधर थे ; गाँधी विश्वास और धर्म, अहिंसा, सिद्धांततः जातिव्यवस्था के हिमायती थे और विज्ञानं के लिए उनके पास न समय था और न क्षुधा थी |
आर्थिक उदारवाद, पोखरण परमाणु परीक्षण, अंतरिक्ष अभियान, ग्राम स्वराज के बदले द्रुत गति से होता शहरीकरण और राजनीतिक दक्षिणपंथ का अभ्युदय सावरकर के विचार से अधिक प्रेरित हैं| फिर भी एक हमारे ‘राष्ट्रपिता’ हैं तो दूसरे को उनकी हत्या का परोक्ष रूप से दोषी माना जाता है| जैसे संसद में दोनों के चित्र तिरछे विपरीत ( diagonally opposite) हैं, वैसे ही गाँधी और सावरकर भारतीय इतिहास के दो असंगत ध्रुव बने रहेंगे|
राज कुमार झा
Source: Vikram Sampath, author of the upcoming book
Savarkar: Echoes from a Forgotten Past.
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