दण्डनीति
प्राचीन भारत में राजशास्त्र को
दण्डनीति, राजधर्मानुशासन, राजधर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि नामों से जाना जाता
था| यह शास्त्र सर्वाधिक प्राचीन शास्त्रों में एक है| महाभारत की एक कथा ( शांतिपर्व, अध्याय ५९ ) के अनुसार सतयुग में
पहले राजा नहीं था, न दण्ड था| प्रजा
धर्मानुगामिनी / कर्मानुगामिनी थी| फिर काम, क्रोध, लोभ आदि दुर्गुण उत्पन्न हुए | कर्त्तव्याकर्त्तव्य का ज्ञान
नष्ट हो गया और मात्स्य न्याय का बोलबाला हो गया | इस स्थिति से निबटने के लिए
देवताओं ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की जिन्होंने एक लाख अध्यायों वाले ‘दण्डनीति’
नामक नीतिशास्त्र की रचना की | इसे शिव ने दस हज़ार अध्यायों में संक्षिप्त किया जिसे
‘ वैशालाक्ष ‘ कहा गया; इंद्र ने इसे पाँच
हज़ार अध्याय में संक्षिप्त किया जिसे ‘बाहुदन्तक’ कहा गया ; अपनी बौद्धिक क्षमता से
बृहस्पति ने इसे तीन हज़ार अध्यायों में संक्षिप्त किया जिसे ‘ बार्हस्पत्य शास्त्र ‘ कहा गया; शुक्र ने एक
हज़ार अध्यायों में इसका संक्षिप्तीकरण किया जिसे ‘ औशनसी नीति ‘ कहा गया | बाद में
चाणक्य ने ‘ अर्थशास्त्र ‘, कामंदक ने ‘कामंदकीय नीति’, एवं शुक्राचार्य ने ‘शुक्रनीतिसार’ की रचना की | लोगों की घटती
क्षमता के चलते पैतामह शास्त्र आकार में घटता गया | कुछ जगह यह उल्लेख भी
मिलता है कि दण्डनीति की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती हैं | दण्डनीति का प्रयोग राजा
के द्वारा होता था, जो राजधर्म का प्रमुख अंग था|
कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र’ के विद्यासमुद्देश प्रकरण में विद्याओं की सूची
में दण्डनीति की गणना की है: ‘आन्वीक्षिकी-त्रयी-वार्ता-दण्डनीतिश्चेति विद्याः |’
कौटिल्य ने कई राजनीतिक संप्रदायों (Schools) की चर्चा की है जिसमें औशनस संप्रदाय का भी
उल्लेख किया है जो केवल दण्डनीति को ही विद्या मानता था | परन्तु कौटिल्य ने इसका
प्रतिवाद करते हुए चार विद्याओं ( चतस्र एव विद्याः ) को मान्यता दी | कौटिल्य ने
‘अर्थशास्त्र’ में दण्डनीति के निम्नांकित कार्य
बताये हैं :
१)
अलब्धलाभार्था
( जो प्राप्त नहीं है उसे प्राप्त कराने वाली );
२)
लब्धस्य
परिरक्षिणी ( जो प्राप्त है उसकी रक्षा करने वाली );
३)
रक्षितस्य
विवर्धिनी ( जो रक्षित है उसकी वृद्धि
करने वाली ); और
४)
वृद्धस्य
पात्रेषु प्रतिपादिनी ( बढ़े हुए का पात्रों में सम्यक रूप से विभाजन करने वाली ) |
डेविड ईस्टन की राजनीति की परिभाषा ‘मूल्यों के आधिकारिक आबंटन’ के रूप में किया
जाना हजारों साल पहले भारतीय मनीषियों के प्रति आभार प्रकट करना ही है | वैसे शायद
ईस्टन इस बात को नहीं जानते होंगे |
हिंदू
विचारों के अनुसार जब दण्डनीति पूर्ण रूप से लागू थी तब वह स्वर्णयुग या सतयुग था; जब केवल तीन चौथाई दण्डनीति लागू हो तो यह चाँदी
युग या त्रेता होता है; जब केवल आधी दण्डनीति लागू हो तो वह कांस्ययुग या द्वापर है
| जब दण्डनीति की पूरी अवहेलना हो तो वह लौह युग या कलियुग है|
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