Tuesday, October 22, 2019

भारतीय सामाजिक राजनीतिक चिंतन के दो ध्रुव - गाँधी और सावरकर


गाँधी और सावरकर
भारतीय सामाजिक – राजनीतिक चिंतन के दो ध्रुव
लंदन में श्यामजी कृष्ण वर्मा की प्रेरणा से इण्डिया हाउस बना था जो लंदन में भारतीय छात्रों के लिए हॉस्टल का काम करता| परंतु विनायक दामोदर सावरकर के नेतृत्व में यह हॉस्टल पूरे यूरोप में ‘ राजद्रोह और खतरनाक क्रांतिकारी गतिविधियों ‘ का अड्डा बन गया था | अक्टूबर १९०६ में यहीं गाँधी और सावरकर की पहली मुलाकात हुई थी |
सावरकर खाना बना रहे थे जब गाँधी उनसे राजनीतिक मुद्दों पर बात करने पहुँचे | गाँधीजी से सावरकर ने कहा ‘ पहले खाना खा लिया जाए ‘| गाँधीजी यह देख हतप्रभ थे कि यह चितपावन ब्राह्मण झींगा मछली बना रहा था| शुद्ध वैष्णव गाँधी ने भोजन करना मना कर दिया | सावरकर ने गाँधी से कहा: “ जब आप हमारे साथ खाना नहीं खा सकते हैं, तब आप हमारे साथ काम कैसे करेंगे? वैसे भी, यह तो केवल उबली हुई मछली है, जबकि हमें ऐसे लोग चाहिए जो अंग्रेजों को जिंदा खा लेने के लिए तत्पर हों |” यह मुलाक़ात बहुत सौहार्दपूर्ण नहीं थी, समय के साथ दोनों के बीच मतभेद बढ़ते ही गए |
दोनों के बीच समानताएं और असमानताएं विस्मयकारी थीं | दोनों ने मुख्य भूमि भारत के बाहर अपने जीवन के कुछ समय गुजारे – गाँधी दक्षिण अफ्रीका में, सावरकर पहले लंदन और फिर दस वर्ष से अधिक अंडमान की कालकोठरी में | दोनों को अपने हिंदुत्व से प्रेम था, परंतु उनके मार्ग अलग थे | दोनों हिंदी को भारत में संपर्क भाषा के रूप में बढाने के लिए तत्पर थे | दोनों ने एक ही साल, १९०९, में पुस्तकें लिखी जो ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दी गई – गाँधी जी का हिन्द स्वराज और सावरकर का १८५७ की क्रांति पर भारतीय स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम | अंग्रेजों और नकलची इतिहासकारों ने इसे सिपाही विद्रोह कहा था| वे केवल राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि बौद्धिक विरोधी भी थे|
कई लोग यह संकेत देते हैं कि हिंद स्वराज लिखते समय गाँधी के दिमाग में सावरकर थे, जबकि १९२३ में प्रकाशित सावरकर की पुस्तक Essentials Of Hindutva निर्विवाद रूप से गाँधी के विरुद्ध प्रथम प्रहार थी जिनके शांतिवादी दर्शन को सावरकर पूरी तरह ख़ारिज करते थे | यद्यपि १९०९ में प्रकाशित दोनों की पुस्तकों का लक्ष्य ‘स्वराज’ था, गाँधी के लिए साधन साध्य के साथ अंतरंग रूप से जुड़े थे और अहिंसा इनका मंत्र था | दूसरी ओर सावरकर राष्ट्र के आत्माश्वासन / स्वाग्रह में विश्वास करते थे जिसकी अभिव्यक्ति हिंसक, सशस्त्र कृत्य के रूप में होती |सावरकर को अहिंसा की कायरता से घृणा थी और वे आजीवन मानते रहें कि सैन्यीकरण मजबूत राष्ट्र की शर्त है|
भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करने वाले प्रथम व्यक्ति सावरकर थे और वह भी उस समय जब कांग्रेस प्रार्थना पत्र के माध्यम से अंग्रेजों से कुछ रियायतें प्राप्त करने में लगी थी | १९०८ ईस्वी में ही सावरकर ने भारत के लिए सांविधानिक गणतन्त्र का एक खांका तैयार किया था जिसकी संसद में दो सदन होते – ऊपरी सदन में राष्ट्र के लिए संघर्ष करने वाले देशी रजवाड़ों के प्रतिनिधि होते और निचले सदन में जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित प्रतिनिधि होते |
हिंसा, राजनीतिक हत्याओं को बढ़ावा देने और भारत में चोरी छुपे शस्त्रास्त्र और बम लाने के आरोप में सावरकर को १९१० में लन्दन में गिरफ्तार कर लिया गया, उन पर राजद्रोह का मुक़दमा चला, उन्हें प्रत्यर्पित किया गया, अन्यायपूर्ण ढंग से मुकदमा चला और ५० वर्षों की अंडमान की कालकोठरी में दो आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई| गाँधी उस समय राष्ट्रीय परिदृश्य पर कहीं नहीं थे जब सावरकर को कालापानी के लिए अंडमान निकोबार में भेज दिया गया था | परंतु जब १९२१ में सावरकर को वहाँ से भारतीय जेल में लाया गया तब उनका सामना ऐसे गाँधी से हुआ जो न केवल भारत लौट आए थे बल्कि जिन्होंने कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया था, खासकर १९२० में तिलक की मृत्यु के पश्चात् |
अपने जेल की चारदीवारी से सावरकर यह देख संत्रस्त थे कि कैसे गाँधी खिलाफत के मुद्दे को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़कर धर्म और राजनीति में घालमेल कर खतरनाक सांप्रदायिक आग को हवा दे रहे थे | प्रथम विश्वयुद्ध के अंतिम दिनों में कई भारतीय मुसलमान, खासकर सुन्नी, पराजित तुर्की के सुलतान की प्रभुसत्ता को कायम रखने की मांग कर रहे थे, क्योंकि वे उसे पैगम्बर के प्रतीक के रूप में देखते थे | ब्रिटेन इस मांग को मानने के लिए तैयार नहीं था क्योंकि तुर्की सहित अन्य मुस्लिम देश खलीफा के शासन के अंत के पक्षधर थे |
ऐसे में इस आंदोलन का विफल होना निश्चित था | फिर भी, डॉक्टर अम्बेडकर के शब्दों में, गाँधी ने आंदोलन का नेतृत्व “ऐसे जोश और विश्वास के साथ ग्रहण किया जो बहुत सारे मुहम्मडनों को भी अचंभित किया होगा|” प्रतीकात्मक राजनीति के अतुल्य खिलाड़ी ने आशा की थी कि इससे न केवल हिंदू-मुस्लिम एकटा को बल मिलेगा बल्कि मुसलमानों को राष्ट्रीय संघर्ष में, जिससे उन्होंने अपने को सोच-विचार कर अलग रखा था, आकर्षित भी करेगा|गाँधी के एक साल के भीतर मुक्ति के आश्वासन ने सांप्रदायिक उर्जा सेसे प्रेरित भीड़ की आशा को बहुत बढ़ा दिया था |
जैसाकि होना ही था इस आंदोलन की विफलता ने १९२० के दशक में सांप्रदायिक भीड़ के गुस्से को पूरे भारत में सांप्रदायिक उन्माद और दंगे में धकेल दिया – मालाबार में मोपलाओं द्वारा नरसंहार. गुलबर्ग, कोहट, दिल्ली, पानीपत, कलकत्ता, पूर्वी बंगाल और सिंध के सांप्रदायिक संघर्ष भयानक थे | हर समय, हर जगह गाँधी की ठंढी अनुक्रिया ने सावरकर के क्रोध को और भड़काया| उदाहरणस्वरुप, गाँधी ने मालाबार में मोपलाओं द्वारा हिन्दुओं (नायरों) के नरसंहार को “ बहादुर, धर्म-परायण मोपलाओं” का कृत्य कहा; उन्हें ‘देशभक्त’ कहा जो ‘ जिसे वे मजहब मानते हैं के लिए संघर्ष कर रहे हैं|”
इसी पृष्ठभूमि में सावरकर ने रत्नागिरी कारा में हिंदुत्व पर अपनी पुस्तक लिखी, जो गांधीवाद और खिलाफत आंदोलन, जिसे वे अक्सर ‘आफत कहा करते थे, का सीधा जवाब था|उन्होंने हिन्दू समाज की एकता का आह्वान किया और भारत के पवित्र भूगोल और क्षेत्रीय अखण्डता को परिभाषित कर खिलाफत की पारदेशी निष्ठा ( transnational loyalty) को चुनौती दी| कोई भी व्यक्ति जो इस भूमि को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानता है वह ‘हिन्दू है, भले ही वह मुसलमान या इसाई ही क्यों न हो | सावरकर के अनुसार वे (मुसलमान और इसाई ) धार्मिक आधार पर नहीं, साझे इतिहास और खून के रिश्ते ( bloodline) के आधार पर सांस्कृतिक रूप से हिन्दू हैं | इसके बाद से सावरकर ने अपने को हिन्दू समुदाय के हितों के रक्षक के रूप में पेश करना शुरू किया यद्यपि वे हिन्दू धर्म के कर्मकाण्डी पक्ष के प्रति न केवल उदासीन थे बल्कि अनीश्वरवाद और संशयवाद के बीच डोलते रहते थे|
१९२४ – १९३७ के बीच सावरकर ने रत्नागिरी में, जहाँ उन्हें जेल से रिहाई के बाद सशर्त बंदी के रूप में रखा गया था, बड़े स्तर पर समाज सुधार कार्यक्रम चलाया | उन्होंने जाति-व्यवस्था, वर्ण परंपरा और छुआछूत को पूरी तरह समाप्त कर हिन्दू समाज में एकता लाने का प्रयास किया और अंतर-जातीय भोज, अंतरजातीय और अंतरक्षेत्रीय विवाह, विधवा विवाह, नारी शिक्षा और सभी जातियों के लिए मन्दिर के द्वार खोले जाने के लिए काम करना शुरू किया |
सावरकर के विचार गाँधी की अपेक्षा अम्बेडकर से अधिक मेल खाते थे|जाति के संबंध में गाँधी के विचार अनोखे थे|गाँधी जी का कहना था कि वे “ जाति व्यवस्था को घिनौनी और भ्रष्ट हठधर्मिता “ (odius and vicious dogma ) नहीं मानते थे और “ यद्यपि “ इसकी अपनी सीमाएं और दोष हैं, परन्तु इसमें पाप जैसी वैसी कोई बात नहीं है जैसी छुआछूत में है |” गाँधी के इन विचारों ने सावरकर और अंबेडकर दोनों को समान रूप से क्रुद्ध किया था |
जब १५ दिसम्बर १९३२ को अस्पृश्यों का एक शिष्टमंडल उनसे मिलने आया तो गाँधी ने साफ साफ कह दिया कि “ मैं चातुर्वर्ण्य में विश्वास करता हूँ ... सभी वृत्तियाँ / व्यवसाय वंशानुगत होनी चाहिए | लाखों लोग प्रधान मंत्री और वाइसराय नहीं बनने जा रहे हैं |” अम्बेडकर और सावरकर के लिए ये विचार लोकतंत्र की मूलभूत संकल्पना के विरुद्ध थे |
  मार्च १९२७ में गाँधी जी सावरकर से मिलने उनके घर रत्नागिरी पहुंचे | दोनों के बीच घंटों विवाद होते रहे, खासकर सावरकर द्वारा शुद्धीकरण या हिन्दू धर्म में दूसरों को वापस लाने के मुद्दे पर| चलते समय गाँधी जी ने कहा कि यद्यपि कई मुद्दों पर दोनों के विचार अलग हैं परन्तु उन्हें आशा है कि सावरकर को इन मुद्दों पर उनके प्रयोग से कोई आपत्ति नहीं होगी| सावरकर का जवाब बहुत तीखा था | उन्होंने कहा : महात्मा जी, आप ये प्रयोग राष्ट्र की कीमत पर करेंगे | ( You will be making these experiments at the cost of the nation.) दोनों फिर कभी नहीं मिले |
१९३७ में अपनी रिहाई के बाद सावरकर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने और गाँधी के कांग्रेस और जिन्ना के मुस्लिम लीग के विरुद्ध प्रत्यक्ष रूप से खड़े हो गए | सावरकर ‘जेल भरो’ आंदोलनों को मूर्खता मानते थे | इसके बदले उन्होंने रास बिहारी घोष और सुभाष चन्द्र बोस को मदद देना शुरू किया और उनकी भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) में लोगों की भर्ती के लिए काम करना शुरू किया| इस तथ्य को कि १९४६ के नौसैनिक विद्रोह ने हमें अंततः आज़ादी दिलाने में मदद की हमारी इतिहास की पुस्तकों में चालाकी से छिपा लिया गया है|
सावरकर घोर बुद्धिवादी थे और यंत्रीकरण, बाज़ार संचालित अर्थ व्यवस्था, सशक्त सेना और वैज्ञानिक मानसिकता के पक्षधर थे | वे १९३४ के बिहार के विनाशकारी भूकंप को छुआछूत के चलते ईश्वरीय दंड के गाँधी की उक्ति की खिल्ली उड़ाते थे | गाँधी जी पर तंज कसते हुए सावरकर ने लिखा: “ मैं क्वेट्टा भूकम्प से क्यों डोल उठा के संबंध में उनकी अंतरात्मा की आवाज़ सुनने की अभी भी प्रतीक्षा ही कर रहा हूँ |”
जहाँ गाँधी सिनेमा के प्रभाव के संबंध में तिरस्कारपूर्वक बोलते थे, वहाँ सावरकर इसे आधुनिक प्रौद्योगिकी का सर्वोत्तम उदाहरण मानते थे और ‘ मानव मस्तिष्क के अभिनव भाव ( innovative spirit) पर किसी प्रतिबन्ध को नापसंद करते थे | जब साक्षातकर्ता ने उनसे पूछा कि क्या उनके ये विचार गाँधी के विचारों के विरुद्ध थे, सावरकर ने झट से कहा कि “ क्या गाँधी और मुझमें कुछ भी समान है ?”
गाँधी गौ-पूजा के बड़े समर्थक थे| जून १९२१ में उन्होंने कहा : “कोई भी जो गौ-रक्षा में विश्वास नहीं करता हिन्दू होने का दावा नहीं कर सकता | मेरे लिए गौ-पूजा निष्कपटता की पूजा है|” सावरकर के विचार आज के गौ-रक्षकों को आघात पहुंचा सकते हैं| सावरकर के अनुसार गाय केवल उपयोगी जानवर है, जिसकी रक्षा होनी चाहिए , परन्तु इसे पूजनीय बना देना मानवता और देवत्व दोनों का अपमान है | हम जिस वस्तु पर श्रद्धा रखते हैं वह पूजक के व्यक्तित्व में समा जाता है और इसलिये हिंदुत्व का प्रतीक वश्य गाय नहीं, हिंस्र नृसिंह है|
 जीवन भर सावरकर शहीदों की मौत का रूमानीकरण करते रहे| परन्तु मृत्यु में भी गाँधी ने उन्हें पीछे छोड़ दिया जब ३० जनवरी १९४८ को सावरकर के एक पूर्व सहायक ने गाँधी की हत्या कर दी| सावरकर पर नाथूराम गोडसे से संपर्क के आधार पर गाँधी की हत्या की साजिश का मुक़दमा चला जो ठोस साक्ष्य के अभाव में ख़ारिज हो गया और सावरकर बरी कर दिए गए|
१९२६ में जब आर्य समाज के प्रमुख और गाँधी तथा सावरकर दोनों के पूज्य मित्र – स्वामी श्रद्धानन्द – की हत्या एक धर्मांध मुसलमान, अब्दुल रशीद, ने कर दी तो गाँधी ने उसकी भर्त्सना करने के बदले उसे ‘प्रिय बन्धु कहा| सावरकर ने गाँधी के इस कृत्य की घोर भर्त्सना की| सावरकर ने लिखा : यह संतनुमा महात्मा का प्रमाणचिह्न है कि वह कहे कि जिस खून ने ‘ हिन्दू खून, उसमें भी एक संत का खून बहाया है, वह हमरा अपना सहोदर है.... आपने तो कभी डायर का बचाव नहीं किया| क्या यूरोपियन भी भाई नहीं हैं ?”
परंतु गाँधी के ‘अहिंसक’ अनुयायियों को ऐसा कोई मनस्ताप नहीं था | चूंकि नाथूराम गोडसे एक महाराष्ट्री ब्राह्मण था, पूरे महाराष्ट्र में गाँधी-हत्या के बाद बड़े पैमाने पर ब्राह्मणों का कत्लेआम किया गया, फिर एक तथ्य जिसे स्वतंत्रता के पश्चात् पूरी तरह ढक दिया गया| सावरकर के छोटे भाई नारायण राव इन दंगों में गंभीर रूप से घायल हुए और अंततः चल बसे| सावरकर हमेशा के लिए कलंकित हुए और कोर्ट से दोषमुक्ति के बाद भी उन पर गाँधी हत्या का धब्बा लगा ही रहा| गाँधी की हत्या के दो दशक बाद तक सावरकर एकाकीपन की जिंदगी गुजारते रहे | १९६६ में उन्होंने भोजन, पानी और दवा का पूर्ण परित्याग कर प्राणत्याग कर दिया | इस प्राणत्याग को सावरकर ने आत्मार्पण कहा|
यदि सावरकर और गाँधी में विषमता ढूंढा जाए तो सावरकर आधुनिकता और विज्ञान, राजनीति से कर्मकाण्डीय  धर्म का पृथक्करण, सैन्यीकरण और जातिव्यवस्था को पूरी तरह समाप्त करने के पक्षधर थे ; गाँधी विश्वास और धर्म, अहिंसा, सिद्धांततः जातिव्यवस्था के हिमायती थे और विज्ञानं के लिए उनके पास न समय था और न क्षुधा थी |
आर्थिक उदारवाद, पोखरण परमाणु परीक्षण, अंतरिक्ष अभियान, ग्राम स्वराज के बदले द्रुत गति से होता शहरीकरण और राजनीतिक दक्षिणपंथ का अभ्युदय सावरकर के विचार से अधिक प्रेरित हैं| फिर भी एक हमारे ‘राष्ट्रपिता हैं तो दूसरे को उनकी हत्या का परोक्ष रूप से दोषी माना जाता है| जैसे संसद में दोनों के चित्र तिरछे विपरीत ( diagonally opposite) हैं, वैसे ही गाँधी और सावरकर भारतीय इतिहास के दो असंगत ध्रुव बने रहेंगे|
राज कुमार झा

Source: Vikram Sampath, author of the upcoming book Savarkar: Echoes from a Forgotten Past.



सत्य के विभिन्न आयाम - महात्मा गाँधी और वीर सावरकर


सत्य के विभिन्न आयाम – महात्मा गाँधी और वीर सावरकर
Everything we hear is an opinion, not a fact. Everything we see is a perspective, not the truth. – Marcus Aurelius
हम जो सुनते हैं केवल मत हैं, तथ्य नहीं| हम जो भी देखते हैं वह दृष्टिकोण है, सत्य नहीं| - मार्कस औरेलियस
सत्य बहु-आयामी है| एक का सत्य दूसरे का असत्य हो सकता है| गाँधीजी प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार सत्य को ईश्वर मानते थे| वे सत्य और अहिंसा पर सर्वाधिक बल देते थे| परन्तु गांधीजी के लिए जो सत्य था वह सावरकर के लिए असत्य और पाखंड था | गांधीजी की अहिंसा सावरकर के लिए कई अर्थों में केवल कायरता थी |
गांधीजी की बड़ी भूलों में एक १९२०-२२ का खिलाफत आंदोलन थी | प्रथम विश्वयुद्ध में पराजित तुर्की के सुल्तान को बचाने के लिए गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन छेड़ा क्योंकि उनकी नज़र में हिन्दू-मुस्लिम एकता कायम करने और बढाने का यह सुनहरा अवसर होता | परन्तु असहयोग / खिलाफत आंदोलन के दौरान केरल के मालाबार तट पर बसे मोपलाओं ने अगस्त १९२१ में जिहाद छेड़ दिया | जब उनके दो नेताओं को हथियार इकठ्ठा करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया तब मोपलाओं ने ब्रिटिश पुलिस के दो कर्मियों को मार दिया और  छोटे-छोटे खिलाफत राज्यों (kingdoms) की स्थापना कर ली | इन स्थानों पर हिन्दुओं के घर और मन्दिर जलाये गये या ध्वस्त कर दिए गए, महिलाओं से बलात्कार किया गया, और बच्चों का कत्लेआम किया  गया | आधिकारिक रपट के अनुसार ६०० हिंदू मौत के घाट उतार दिए गये और २५०० को जबरन मुसलमान बना दिया गया | केरल कांग्रेस के रपट में स्थिति की भयावहता का वर्णन किया गया था | मालाबार की महिलाओं के वक्तव्य वाइसराय लार्ड रीडिंग की पत्नी को भेजे गए और एनी बेसंट की पत्रिका New India और सी शंकरन नायर की १९२२ में प्रकाशित पुस्तक Gandhi and Anarchy में प्रकाशित हुए |
 इस जघन्य कृत्य पर गांधीजी की प्रतिक्रिया थी: “ खुदा से डरने वाले जांवाज़ मोपला” अपने मजहब की रक्षा के लिए लड़ रहे थे और खिलाफत नेताओं ने मोपलाओं को बधाई संदेश भी भेजे | परन्तु जब तथ्य बाहर आने लगे तब कांग्रेस ने कहने के लिए तो इसकी निंदा में प्रस्ताव पारित किया, परन्तु वास्तव में यह मोपलाओं का बचाव था क्योंकि इसमें कहा गया कि यह हिंसा इसलिये हुई कि मोपलाओं के बीच अहिंसा का पैगाम पहुंचाने नहीं दिया गया | कई मोपलाओं को गिरफ्तार किया गया और लगभग २०० को फांसी दी गई |
 रत्नागिरी में जिला नज़रबंदी के तुरंत बाद सावरकर ने मोपला विद्रोह पर मराठी में एक उपन्यास लिखनी शुरू की| उपन्यास का शीर्षक था “माला काई त्याचे” ( How Do I Care?)?  इस्लामी कट्टरपंथ के प्रति सामान्य हिन्दुओं की उदासीनता पर टिप्पणी के रूप में यह नाम चुना गया था | सावरकर को राजनीतिक गतिविधि में भाग लेने की मनाही थी, इसलिये अभी वे छद्म नाम से लिखते थे | १९२३ में ‘‘हिंदुत्व’’ ‘एक मराठा’ और १९२५ में लिखित मोपला उपन्यास उनके बड़े भाई बाबाराव की कृति बताई गई | परन्तु बादके संस्करणों में असली लेखक, अर्थात सावरकर, का नाम आने लगा|
इसके पूर्ववर्ती दशक में उत्तर भारत में हिन्दू महासभा की स्थापना की गई थी जिसका घोषित उद्देश्य हिन्दुओं को ‘धमकी और मारपीट’ ( intimidation and assault) से सुरक्षा प्रदान करना था| मालाबार हिंसा के बाद मुल्तान, सहारनपुर, अमृतसर, नागपुर और आगरा जैसे स्थानों में दंगे भड़क गए, जिससे एक छोटा संगठन बड़ा रूप लेने लगा|हिन्दू महासभा का पहला अधिवेशन काशी में हुआ | महासभा का नेतृत्व कांग्रेस नेता और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय जैसे नेता कर रहे थे| लाला लाजपत राय जैसे कई नेता महासभा की ओर आकर्षित हो रहे थे|
 लगभग इसी समय बाबाराव सावरकर के नागपुर के मित्र केशव बलीराम हेडगेवार हिन्दू पुनर्जागरण के लिए एक नया संगठन बनाने पर विचार कर रहे थे| सावरकर के छोटे भाई नारायण सावरकर और हेडगेवार कलकत्ता में साथ साथ डाक्टरी की पढाई किये हुए थे| संभव है कि नारायण के माध्यम से ही बाबाराव और हेडगेवार की मुलाकात हुई हो| बंदी सावरकर से मिलवाने के लिए बाबाराव हेडगेवार को १९२५ में रत्नागिरी लाये| कभी बंगाल के अनुशीलन समिति के सदस्य रहे हेडगेवार कांग्रेस कार्यकर्ता के रूप में असहयोग आंदोलन में भाग लेने के चलते जेल भी गये थे|बाद में हेडगेवार का गांधीजी से मोहभंग हो गया| सावरकर के नव-प्रकाशित ‘हिंदुत्व ने हेडगेवार को बहुत प्रभावित किया|
 केशव बलीराम हेडगेवार ने १९२५ में नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की, परन्तु उस समय के हिन्दू संगठनवादियों के ध्यान के केंद्र स्वामी श्रद्धानंद थे| छुआछूत के विरुद्ध लड़ाई लड़नेवाले स्वामी की प्रतिष्ठा हरिद्वार में उनके द्वारा चलाये जा रहे गुरुकुल के चलते बहुत फैली हुई थी| अपने मित्र सी एफ़ एंड्रूज  के चलते स्वामी जी ने महात्मा गाँधी को जाना था| आर्य समाज के शुद्धि आंदोलन में विश्वास रखनेवाले स्वामी महात्मा गाँधी के खिलाफत आंदोलन के समर्थन में खड़े हो गए | स्वामीजी को दिल्ली के जामा मस्जिद में मुसलमानों को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया जहाँ उनको सुननेवालों ने उन्हें ‘शांतिदूत कहा| परन्तु शीघ्र ही स्वामी श्रद्धानंद गांधीजी के ‘मनमाने ढंग से निर्णय लेने और ‘छुआछूत मिटाने में उनकी उदासीनता के चलते उनसे दूर हो गए और हिन्दू महासभा में शामिल हो गए| उस समय भारत में जगह जगह सांप्रदायिक झड़प होने लगे थे| स्वामी श्रद्धानंद ने मेवाड़ के मलकाना राजपूतों का हिन्दू धर्म में ‘घर वापसी करवायी, जिसकी ‘जबरन धर्मांतरण’ कह कड़ी आलोचना की|
 गांधीजी जब १९२२ में दो वर्षों के लिए यरवदा जेल में थे तब मोहम्मद अली कांग्रेस के अध्यक्ष बने | मोहम्मद अली ने सुझाव दिया कि भारत के आधे ‘अछूतों को हिंदू और आधे को मुसलमान बना दिया जाए| जब पेशावर के निकट कोहट में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी तब बड़ी संख्या में वहाँ से हिन्दुओं का पलायन शुरू हो गया| स्वामी श्रद्धानंद को विश्वास हो गया कि गाँधी मुस्लिम भावनाओं को संतुष्ट करने में लगे हैं| परन्तु शुद्धि आंदोलन को आगे बढ़ा सकने के पहले स्वामीजी की हत्या कर दी गयी| जब वे दिल्ली में अपने घर में वीमारी से उबड़ने के बाद स्वास्थ्यलाभ कर रहे थे तब दिसम्बर १९२६ में एक मुस्लिम सुलेखक (Calligrapher) अब्दुल रशीद दर्शक बनकर आया, स्वामीजी से मिलने की इच्छा प्रकट की और उनके ह्रदय में दो गोलियां दाग दी| यह हत्या स्वामीजी के तथाकथित रूप से स्वामीजी के मुस्लिम-विरोधी वक्तव्यों और मेवात में उनके द्वारा ‘घरवापसी कराने के विरोध में हुई थी|
 दोनों के बीच कई मतान्तरों के बावजूद गांधीजी के मन में स्वामी श्रद्धानंद के लिए सच्चा सम्मान था और उन्होंने स्वामीजी की मृत्यु पर शोक मनाने से यह कहकर माना कर दिया कि इस सुधारक की मृत्यु एक योद्धा की मृत्यु है| परन्तु उसी सांस में उन्होंने हत्यारे को ‘भाई भी कहा और ‘यंग इण्डिया’ में लिखा कि वे हत्यारे का बचाव करना चाहते हैं| उन्होंने इतना तक कह दिया कि वे ‘उसे स्वामीजी की हत्या का दोषी भी नहीं मानते’ हैं| महात्मा के अनुसार सारा दोष समाचारपत्रों का था: वे झूठ का प्रसार कर घृणा को बढ़ावा दे रहे थे, और एक ‘सामान्य समाचारपत्रवाला’ चलता-फिरता ‘प्लेग बन गया है| ‘दोनों हिंदू और मुसलमान मतों के नेतागण भी अपनी ‘जबान और कलम को लगाम नहीं देते हैं, और प्रचार ने ही यह ‘काला और भयानक कृत्य करवाया है|”दोष हमलोगों का है ... हम शिक्षित और लगभग शिक्षित वर्ग उस गर्म बुखार के लिए जिम्मेवार हैं जिसने अब्दुल रशीद को जकड लिया था|
 गांधीजी के अनुसार इस हत्या ने हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को कठघरे में खड़ा कर दिया है|जो कुछ हुआ है यदि हिन्दू उस पर रोष दिखाते हैं तो वे ‘हिंदुत्व को अपमानित करते हैं’ और एकता, जिसे हर हाल में लाना ही है, को स्थगित करते हैं’, परंतु यदि वे आत्म-नियंत्रण (self restraint) दिखाते हैं तो वे ‘उपनिषदों और युधिष्ठिर के संदेश’ के अनुसार काम करनेवाले क्षमाशीलता के साकार रूप बन जाएँगे| गांधीजी ने हिन्दुओं से कहा कि “एक व्यक्ति के अपराध के लिए पूरे समुदाय को दोषी नहीं ठहराया जा सकता|... हमें प्रतिशोध की भावना नहीं पनपनी देनी चाहिए | हमें इसे एक हिंदू के विरुद्ध एक मुसलमान का दोषपूर्ण कृत्य नहीं, बल्कि एक नायक के विरुद्ध भटके हुए भाई का कृत्य मानना चाहिए|”
 गांधीजी के अनुसार इसमें कोई संदेह नहीं है कि मुसलमान छूरे और पिस्तौल से खुलकर खेलते हैं, और तलवार, न कि इस्लाम का कोई प्रतीकचिह्न, हमें दृष्टिगोचर होता है| यदि इस्लाम को शांति का मजहब सवित करना है तो इसे म्यान में रखना होगा, और भारत के मुसलमानों को इस जघन्य कृत्य की सामूहिक भर्त्सना करनी होगी |
 गांधीजी ने अपने लेख के अंत में लिखा कि जब दोनों जिम्मेवार हैं तो कौन सुनहरे तराजू से दोष का अनुपात निर्धारित करेगा? सावरकर ने गांधीजी के इस लेख की कड़ी निंदा की | उन्होंने गांधीजी के कथन को ‘कायराना, अन्यायपूर्ण और पक्षपातपूर्ण’ कहा और उनपर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच झूठी समानता (false equivalence) निर्मित करने का आरोप लगाया| सावरकर के अनुसार अपने समुदाय के अपराध को छिपाना अपराध है, परन्तु ज्यादतियों के शिकार बने अपने समुदाय को ही दोषी ठहराना उससे भी बड़ा अपराध है|
 अपने व्यंग्यात्मक शैली में सावरकर ने कहा: गांधीजी का कथन कि समाचारपत्र ‘चलते फिरते प्लेग’ हैं, उनके साप्ताहिक पात्र ‘यंग इण्डिया के मामले में सिद्ध हो गया है| सावरकर ने आरोप लगाया कि यद्यपि गांधीजी सत्य के प्रति अत्याकर्षित थे, तथापि अपने को महात्मा सिद्ध करने के लिए वे झूठ का प्रसार करते थे| गांधीजी द्वारा मोपलाओं को ‘जांबाज़’ और अब्दुल रशीद को ‘भाई कहने पर सावरकर ने उन्हें घेरते हुए पूछा कि जब बंगाली क्रांतिकारी गोपीनाथ साहा को १९२४ में एक ब्रिटिश अधिकारी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था तब उनकी यह उदात्त भावना कहाँ चली गई थी? जब बंगाल प्रांतीय कांग्रेस ने साहा की देशभक्ति की सराहना का प्रस्ताव रखा तब गांधीजी ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के द्वारा उसे घृणास्पद करार करते हुए अस्वीकृत करा दिया| एक साक्षात्कार में गांधीजी ने कहा: “ मैं गोपीनाथ साहा जैसे हत्यारों को देशभक्त कहूँगा, परन्तु ‘भटके हुए विशेषण जोड़े बिना नहीं|”
 १९२६ में जब स्वामी श्रद्धानंद की हत्या की गई थी तब मुहम्मद अली ने तबलिघ आंदोलन का समर्थन करते हुए दिल्ली के खिलाफत सम्मलेन में कहा था कि गैर-मुसलमानों को मुसलमान बनाना प्रत्येक मुसलमान का कर्त्तव्य है और वह उस दिन के लिए प्रार्थना करेंगे जब वे गाँधी का धर्मांतरण कर उन्हें मुसलमान बना लेंगे| उसी सम्मलेन में बैरिस्टर अमीन ने मुसलमानों का आह्वान करते हुए कहा कि अगले दस वर्षों में प्रत्येक मुसलमान कम-से-कम तीन हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन कराये जिससे आने वाला ‘स्वराज ‘इस्लामी राज बन सके | सावरकर के अनुसार इसी मानसिकता के चलते भारत में सांप्रदायिक विद्वेष है, परंतु गाँधी यदि गलत  निदान पर तुले हैं, तो उपचार विनाशकारी होगा|
 १९२५ से गांधीजी भारत के कोने कोने का दौरा कर रहे थे| स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के कुछ दिनों बाद वे मराठी-भाषी क्षेत्र के भ्रमण पर गए | मार्च १९२७ में वे रत्नागिरी गये | वहाँ उन्होंने तिलक, जिनका जन्मस्थान रत्नागिरी था, और सावरकर की चर्चा से अपना संबोधन आरंभ किया| महात्मा ने कहा कि उन्हें पता है कि सावरकर, जिन्हें वे इंग्लैंड में अच्छी तरह जानते थे और जिनके महान वलिदान और देशभक्ति ज्ञात हैं, इसी शहर में रह रहे हैं| “ हमारे बीच उस समय मतभिन्नताएं थीं, जो अभी भी हैं परंतु जिनके चलते हमारी मित्रता में जरा सा भी फर्क नहीं आया है| मतांतर का अर्थ शत्रुता नहीं है|( “We had our differences then,” and we have them now but they have not affected in the least our friendship. Differences of opinion should never mean hostility.”)

 जनसभा के बाद गांधीजी सीधे सावरकर के निवास पर पहुंचे और दोनों के बीच विस्तार से चर्चा हुई| सावरकर बुखार से पीड़ित थे| सावरकर ने स्पष्ट किया कि गांधीजी राजनेता के रूप में नहीं बल्कि मित्र के रूप में उनसे मिलने आए थे| सावरकर ने अहिंसा के पुजारी से छुआछूत और शुद्धि पर अपने विचार स्पष्ट करने को कहा| महात्मा के सचिव महादेव देसाई ने लिखा कि गांधीजी ने कुछ भ्रांतियों को साफ़ किया और सावरकर से कहा: “ अभी हम लंबी बातचीत नहीं कर सकते, परन्तु आप जानते हैं कि आपके लिए मेरे मन में कितना सम्मान है| फिर, हमारे लक्ष्य एक हैं और मैं चाहूंगा आप पत्राचार के माध्यम से हमारे बीच मत-भिन्नतावाले मुद्दों, और दूसरे मुद्दों पर भी, संवाद करें|”
 गांधीजी ने आगे कहा : “ मैं जानता हूँ कि आप रत्नागिरी से बाहर नहीं जा सकते और मुझे यह कतई बुरा नहीं लगेगा कि समय निकालकर मैं दो-तीन दिनों के लिए यहाँ आऊँ, आपके साथ ठहरूं और इन विषयों पर संतोषजनक चर्चा करूँ |” देसाई के अनुसार सावरकर ने उत्तर दिया : “ मैं आपका धन्यवाद करता हूँ, परंतु आप मुक्त हैं और मैं बंदी हूँ, और मैं नहीं चाहता कि आपकी हालत भी मेरी जैसी हो जाए| परंतु मैं आपसे पत्राचार करूंगा |”
 हिन्दू-मुस्लिम द्वंद्वों से निपटने के सवाल पर दोनों नेताओं में गहरे मतभेद थे|हिन्दू समाज को आगे कैसे ले जाया जाय के मुद्दे पर इन दोनों के बीच खाई और भी चौड़ी थी| सावरकर ने दैनिक जीवन जीने के महात्मा के नियमों -  घंटों चरखा काटना, एनीमा, शाकाहार पर अत्यधिक बल, और इस बात पर विवाद कि मानव स्वास्थ्य के लिए गाय का दूध अच्छा है कि बकरी का, की कटु आलोचना की| (यद्यपि इन नियमों में से अधिकतर आश्रम में रहने वालों के लिए थे|) सावरकर के लिए ये कोई मुद्दे नहीं थे जिनका न तो नैतिकता ना ही स्वस्थ्य पर कोई असर होता| सावरकर के लिए ‘साहस बड़ा गुण था और यदि गांधीजी आक्रमणकारियों, शोषकों और लुटेरों से निपटने जैसे आत्मरक्षा के मामले में भी हिंसा को अनौचित्यपूर्ण मानते हुए अहिंसा पर बल देते रहेंगे तो भारत का ‘क्षत्रित्व मर जाएगा|
 सावरकर का व्यक्तित्व भी गांधीजी के ही समान जटिल था| गांधीजी एक धर्मनिष्ठ हिंदू थे जो प्रार्थना, कर्मकांड और अनुष्ठानिक शुचिता में विश्वास करते थे, रामराज्य को अपना आदर्श मानते थे और गो-रक्षा को हिन्दुओं का पुनीत कर्त्तव्य मानते थे| गांधीजी ग्राम्य जीवन के प्रशंसक और आधुनिक यंत्रों को अस्वीकार करने वाले थे| वे वर्णाश्रम धर्म (चातुर्वर्ण) की भर्त्सना नहीं करते थे और शुद्धि या ‘घर वापसी के प्रबल विरोधी थे| दूसरी ओर सावरकर धार्मिक अर्थ में धर्मनिष्ठ हिंदू नहीं थे| वे किसी कर्मकाण्ड में भरोसा नहीं करते थे और मानते थे कि यदि ईश्वर का अस्तित्व है भी तब भी वे प्रार्थनाओं का उत्तर नहीं देते हैं| वे हिंदू संगठन और एकता के लिए जातिव्यवस्था को ध्वस्त कर देना चाहते थे| उन्हें मछली खाना बहुत पसंद था और जो ब्राह्मण सामिष भोजन करनेवालों को हेय दृष्टि से देखते थे उन्हें नापसंद करते थे| वे चाहते थे कि हिन्दू और अन्य भारतीय शहरी जीवन और आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति को अंगीकार करें, भले ही वे उनकी धार्मिक आस्थाओं के प्रतिकूल ही क्यों न हों| सावरकर का दृढ़ विश्वास था कि इस्लामी आक्रमण की चुनौतियों से निबटने और हिन्दुओं के अस्तित्व और चरित्र की रक्षा के लिए शुद्धि आंदोलन आवश्यक है|
 गाय के मसले पर सावरकर न केवल गाँधी, बल्कि अधिकांश हिंदुओं से भिन्न मत रखते थे| एक मराठी दैनिक ‘भाला में उसके संपादक ने प्रश्न पूछा था कि ‘हिंदू कौन है ?’ और स्वयं उत्तर दिया था : “ वह जो गाय को माता माने|” सावरकर ने इसकी आलोचना करते हुए एक अन्य पत्रिका ‘किर्लोस्कर में लिखा कि “गाय यदि किसी की माता है तो वह बैल की है, हिंदुओं की नहीं | यदि हिन्दुत्व को गाय के पाँव पर खड़ा कर दिया गया तो एक छोटे संकट के आघात से भी यह धराशायी हो जाएगा|”
 सावरकर ने “ गौ-पूजन” को ‘बुद्धिहत्या माना और हिंदुओं से इसे छोड़ देने का आग्रह किया| सावरकर गौ-पूजा के विरोधी थे, गाय की देखभाल के नहीं| वे गौ-मूत्र और गोबर के सेवन की प्रथा को घिनौना मानते थे| उनके अनुसार प्राचीन भारत में इनका प्रयोग शायद प्रायश्चित के लिए किया जाता रहा होगा| जिन हिंदुओं को उनके ये विचार ‘ईशनिंदा’ प्रतीत हो रहे होंगे उन्हें ललकारते हुए सावरकर ने कहा : “ आपकी ईशनिंदा का अपराध और बड़ा है क्योंकि आपने ३३ कोटि देवी-देवताओं को गाय के पेट में ठूंस दिया है |”
 गौ-पूजा का विरोध सावरकर के हिंदुत्व से जुड़ा है| गौ-पूजा से सावरकर को इसलिए समस्या थी कि इसके चलते इतिहास में कई बार हिन्दुओं को पराजय का मुँह देखना पड़ा था| नेहरु जी के विपरीत सावरकर केवल अंग्रेजों को आक्रमणकारी नहीं मानते थे| उनके अनुसार सैकड़ों वर्ष के इस्लामी शासन भारतीयों के लिए जंजीर में जकड़े जाने, अधीनता स्वीकार करने, दमन और दासता के वर्ष थे|
 सावरकर के अनुसार कई निर्णायक युद्धों में मुसलमानी सेना ने हिन्दुओं के विरुद्ध ढाल के रूप में गाय का उपयोग किया| उन्होंने दो उदाहरणों के द्वारा इसे स्पष्ट किया| पहला था मुल्तान पर आक्रमण और दूसरा मल्हारराव होलकर द्वारा अठारहवीं सदी में काशी को मुक्त करने का अभियान | दोनों जगह गायों को आगे कर हिंदुओं को पीछे हटने पर मजबूर किया गया था| सावरकर के अनुसार कुछ जानवरों की रक्षा के लिए हमने कितने मंदिर ध्वस्त हो जाने दिए और पूरे भारत में कितनी वधशालाएँ खुल जाने दिए|
 परन्तु गाय के मसले पर हिन्दुओं को यह फटकार गैर-हिन्दुओं के लिए धार्मिक कृत्य के रूप में गौहत्या की छूट नहीं थे| सावरकर ने लिखा कि हिंदू सीधे हो सकते हैं, वे क्रूर नहीं हैं| इसके विपरीत जो गौ-हत्या को अपने धर्म का अंग मानते हैं अपने धार्मिक उत्साह में नृशंस हैं और उन्हें गौ-पूजकों का उपहास उड़ाने का कोई अधिकार नहीं है | गौ-हत्या को सावरकर ने ‘ अति-बर्बरता, कृतघ्नता और आसुरी भावना ‘ माना और जो लोग यह कुकृत्य करते हैं उन्हें घृणा त्यागने और ‘ गाय की देखभाल ( cow care) का सुझाव दिया|
 उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जहाँ गाँधी एक धर्मनिष्ठ हिंदू थे जो वैष्णव संप्रदाय से प्रेरित अहिंसा, क्षमा, दया और सत्य पर बल देते थे, वहाँ सावरकर ऐसे हिंदू थे जिन्हें धार्मिक कर्मकांडों में बहुत आस्था नहीं थी, जो जाति-प्रथा की समाप्ति चाहते थे जिससे हिन्दुओं में एकता हो और हिंदू राष्ट्र की स्थापना हो सके| सावरकर हिंदुओं में ‘क्षत्रित्व का विकास चाहते थे, जबकि गांधीजी सभी जीवों से प्रेम और हिंदू - मुस्लिम एकता पर बल देते थे| वस्तुतः सावरकर का ‘हिंदुत्व’ इतिहास के उनके अध्ययन पर आधारित राजनीतिक हिंदुत्व था, जबकि गांधीजी एक धर्म-प्राण हिंदू थे| १९१०, खासकर १९२४ में कालापानी से बाहर आने के बाद, सावरकर के सभी कार्यक्रम, चाहे वे जाति व्यवस्था को समाप्त करने की हो, छुआछूत जड़ से मिटाने की हो, अधिक से अधिक हिन्दुओं को सेना में भर्ती कराने की हो, हिन्दुओं को इकठ्ठा करने और उनमें ‘क्षत्रित्व’ की भावना से प्रेरित थे|

     राज कुमार झा, राँची, १९ अक्टूबर २०१९