Friday, September 12, 2014

झारखंड की राजनीति: बौनों के बीच बानवीर् नेता - बाबूलाल मरांडी

बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री हैं। भाजपा ने कम उम्र में ही बाबूलाल को संघीय राज्य मंत्री बनाया था और फिर झारखंड के गठन के बाद उन्हें राज्य का पहला मुख्यमंत्री बनाया। परंतु कृतज्नता राजनीतिज्नों का लक्षण नहीं है। सरकार गठबंधन की थी। जदयू के लालचंद महतो ( जो अब भाजपा में हैं ) और स्वर्गीय मधु सिंह जैसे नेताओं के षडयंत्र और तत्कालीन विधान सभा अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी ( जो अभी तारा शाहदेव - रकीबुल कांड में चर्चा में हैं) की महत्त्वाकांक्षा ने बाबूलाल को अपदस्थ कर दिया। इसमें राजनाथ सिंह की भी भूमिका थी। बाबूलाल के पृष्ठपोषक लाल कृष्ण आडवाणी भी बाबूलाल को नहीं बचा पाये। बाबूलाल ने आडवाणी के विरुद्ध विष-वमन में कोई कसर नहीं छोडी।
अगर झारखंड विधान सभा में भाजपा की सदस्य संख्या लगातार घटती जा रही है तो इसके लिए बाबूलाल कम  उत्तरदायी नहीं हैं। उन्हें पूरी तरह खाली और साफ-सुथरा स्लेट मिला था जिस पर वे सुंदर अक्षरों में झारखंड के विकास का खांका खींच सकते थे, परंतु उन्होंने यह मौका गँवा दिया। स्थानीयता के मुद्दे पर झारखंड को अशांत करने के अतिरिक्त उन्होंने जो झारखंड का सबसे बडा अहित किया वह था संस्थाओं के निर्माण में विफलता। कोई भी अच्छा नेता संस्थाओं को बनाने पर जोड देता, जिसे बिहार में विभिन्न सरकारों के द्वारा ध्वस्त कर दिया गया था। श्री मती इंदिरा गांधी ने भारतीय राज व्यवस्था की जो सबसे बडी क्षति की थी वह थी संस्थाऑं का अवमूल्यन। बाबूलाल ने भी झारखंड में वही काम किया। लोकतंत्र में नियुक्ति की निष्पक्षता के लिए लोक सेवा आयोगों का गठन होता है। बाबूलाल ने लोक सेवा आयोग में बौनों को भरकर यह सिद्ध कर दिया कि पानी नीचे की ओर ही जाता है। बिहार में यही काम डाक्टर जगन्नाथ मिश्र और लालू यादव ने किया था और बिहार को पूरी तरह बरबाद कर दिया था। जिस प्रकार के लोगों को बाबूलाल ने नियुक्त किया था उसमें कोई आश्चर्य नहीं कि लगभग पूरा का पूरा आयोग जेल चला गया। संस्थाओं का महत्त्व समझने के लिये जिस गुण की जरूरत होती है, वह बाबूलाल में है ही नहीं। झारखंड का यह दुर्भाग्य है कि यहाँके किसी भी नेता में यह गुण देखने को नहीं मिलता।
एक बार एक स्थानीय अखबार ने झारखंड राजनीति पर मुझसे एक लेख मांगा। लेख जब छपा तब बाबूलाल के संबंध में की गई टिप्पणियों को छोड दिया गया था। जब इस पर मैने आपत्ति की तो मुझसे कहा गया कि यह प्रबंधन की नीति है। इसके बाद मैंने उस अखबार के लिये लिखना छोड दिया। इस संदर्भ का उल्लेख मैंने केवल यह स्पष्ट करने के लिए किया है कि कैसे मीडिया नेताओं को उछालता है, बचाता है ।
वित्तीय मामले में बाबूलाल की तुलनात्मक रूप से साफ छवि है, परंतु सत्तालोलुपता के आरोप में यह छवि भी धुंधला गयी है। मैं उन लोगों में था जिन्हें झारखंड और बाबूलाल से बहुत उम्मीदें थीं, परंतु झारखंड के ही समान बाबूलाल ने भी अभी तक निराश ही किया है।

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